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गीता-दर्शन भाग छह – Gita Darshan, Vol.6

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ow.gita-darshan-adhyaya-12.book.hin.oi
[1####अनुक्रम][1##1##अध्याय-12][2####प्रेम का द्वार:भक्ति में प्रवेश][2####दो मार्ग: साकार और निराकार][2####पाप और प्रार्थना][2####संदेह की आग][2####अहंकार घाव है][2####कर्म-योग की कसौटी][2####परमात्मा का प्रिय कौन][2####उद्वेगरहित अहंशून्य भक्त][2####भक्ति और स्त्रैण गुण][2####सामूहिक शक्तिपात ध्यान][2####आधुनिक मनुष्य की साधना][1##2##अध्याय-13][2####दुख से मुक्ति का मार्ग: तादात्म्य का विसर्जन][2####क्षेत्रज्ञ अर्थात निर्विषय, निर्विकार चैतन्य][2####रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी][2####समत्व और एकीभाव][2####समस्त विपरीतताओं का विलय-परमात्मा में][2####स्वयं को बदलो][2####पुरुष-प्रकृति-लीला][2####गीता में समस्त मार्ग हैं][2####पुरुष में थिरता के चार मार्ग][2####कौन है आंख वाला][2####साधना और समझ][2####अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी]

Details

"प्रेम की दिशा के परिवर्तन का नाम भक्ति है। और प्रेम से हम इस जगत में प्रवेश करते हैं। प्रेम से ही हम इस जगत के बाहर जा सकते हैं। लेकिन प्रेम के कुछ लक्षण समझ लेने जरूरी हैं।

प्रेम का पहला लक्षण तो है उसका अंधापन। और जो भी प्रेम में नहीं होता, वह प्रेमी को अंधा और पागल मानता है। मानेगा। क्योंकि प्रेमी सोच-विचार नहीं करता; तर्क नहीं करता; हिसाब नहीं लगाता; क्या होगा परिणाम, इसकी चिंता नहीं करता। बस, छलांग लगा लेता है। जैसे प्रेम इतनी बड़ी घटना है कि उसमें डूब जाता है, और एक हो जाता है।

वे, जो भी आस-पास खड़े लोग हैं, वे सोचेंगे कि कुछ गलती हो रही है। प्रेम में भी विचार होना चाहिए। प्रेम में भी सूझ-बूझ होनी चाहिए। कहीं कोई गलत कदम न उठ जाए, इसकी पूर्व-धारणा होनी चाहिए।

प्रेम अंधा दिखाई पड़ेगा बुद्धिमानों को। लेकिन प्रेम की अपनी ही आंखें हैं। और जिसको वे आंखें उपलब्ध हो जाती हैं, वह बुद्धि की आंखों को अंधा मानने लगता है। जिसको प्रेम का रस आ जाता है, उसके लिए सारा तर्कशास्त्र व्यर्थ हो जाता है। और जो प्रेम की धुन में नाच उठता है, जो उस संगीत को अनुभव कर लेता है, वह आपके सारे सोच-विचार को दो कौड़ी की तरह छोड़ दे सकता है। उसके हाथ में कोई हीरा लग गया। अब इस हीरे के लिए आपकी कौड़ियों को नहीं सम्हाला जा सकता। प्रेम अंधा मालूम पड़ता है। क्योंकि प्रेम के पास वे ही आंखें नहीं हैं, जो बुद्धि के पास हैं। प्रेम के पास कोई दूसरी आंखंक हैं। प्रेम के देखने का ढंग कोई और है। प्रेम हृदय से देखता है। और चूंकि हम इस जगत में प्रेम के कारण ही प्रविष्ट होते हैं। अपने प्रेम के कारण, दूसरों के प्रेम के कारण हम इस जगत में आते हैं। हमारा शरीर निर्मित होता है। हम अस्तित्ववान होते हैं। इसी प्रेम को उलटाना पड़ेगा।

इसी अंधे प्रेम का नाम, जब यह जगत की तरफ से हटता है और भीतर चैतन्य की तरफ मुड़ता है, श्रद्धा है। श्रद्धा अंधा प्रेम है, लेकिन मूल-स्रोत की तरफ लौट गया। संसार की तरफ बहता हुआ वही प्रेम वासना बन जाता है। परमात्मा की तरफ लौटता हुआ वही प्रेम श्रद्धा और भक्ति बन जाती है।

जैसा प्रेम अंधा है, वैसी भक्ति भी अंधी है। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान हैं, उनके लिए भक्ति का मार्ग, मार्ग ही मालूम नहीं पड़ेगा। जो बहुत सोच-विचार करते हैं, जो बहुत तर्क करते हैं, जो परमात्मा के पास भी बुद्धिमानीपूर्वक पहुंचना चाहते हैं, उनके लिए भक्ति का मार्ग नहीं है।

उनके लिए मार्ग हैं। लेकिन कृष्ण इस सूत्र में कहेंगे कि भक्ति से श्रेष्ठ उन मार्गों में कोई भी मार्ग नहीं है। किस कारण? क्योंकि बुद्धि कितना ही सोचे, अहंकार के पार जाना बहुत मुश्किल है। प्रेम छलांग लगाकर अहंकार के बाहर हो जाता है। बुद्धि लाख प्रयत्न करके भी अहंकार के बाहर नहीं हो पाती। क्योंकि जब मैं सोचता हूं, तो मैं तो बना ही रहता हूं। जब मैं हिसाब लगाता हूं, तो मैं तो बना ही रहता हूं। मैं कुछ भी करूं--पूजा करूं, ध्यान करूं, योग साधूं--लेकिन मैं तो बना ही रहता हूं।

भक्ति पहले ही क्षण में मैं को पार कर जाती है। क्योंकि भक्ति का अर्थ है, समर्पण। भक्ति का अर्थ है कि अब मैं नहीं, तू ज्यादा महत्वपूर्ण है। और अब मैं मैं को छोडूंगा, मिटाऊंगा, ताकि तुझे पा सकूं। यह मेरा मिटना ही तेरे पाने का रास्ता बनेगा। और जब तक मैं हूं, तब तक तुझसे दूरी बनी रहेगी। जितना मजबूत हूं मैं, उतनी ही दूरी है, उतना ही फासला है। जितना पिघलूंगा, जितना गलूंगा, जितना मिटूंगा, उतनी ही दूरी मिट जाएगी।

भक्ति को कृष्ण श्रेष्ठतम योग कहते हैं।"—ओशो

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