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गीता-दर्शन भाग एक – Gita Darshan, Vol.1
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ow.gita-darshan-adhyaya-1.book.hin.oi
[1####अनुक्रम][1##1##विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट][1##2##अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण][1##3##विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर][1##4##दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा][1##5##अर्जुन का पलायन—अहंकार की ही दूसरी अति][1##6##मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन][1##7##भागना नहीं—जागना है][1##8##मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा][1##9##आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन][1##10##जीवन की परम धन्यता—स्वधर्म की पूर्णता में][1##11##अर्जुन का जीवन शिखर—युद्ध के ही माध्यम से][1##12##निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया][1##13##काम, द्वंद्व और शास्त्र से—निष्काम, निर्द्वंद्व और स्वानुभव की ओर][1##14##फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परमपद][1##15##मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता][1##16##विषय-त्याग नहीं—रस-विसर्जन मार्ग है][1##17##मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढियां][1##18##विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक][1##19##स्वधर्म की खोज][1##20##कर्ता का भ्रम][1##21##परमात्म समर्पित कर्म][1##22##समर्पित जीवन का विज्ञान][1##23##पूर्व की जीवन-कला : आश्रम प्रणाली][1##24##वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना][1##25##अहंकार का भ्रम][1##26##श्रद्धा है द्वार][1##27##परधर्म, स्वधर्म और धर्म][1##28##वासना की धूल, चेतना का दर्पण]
Details
"साधारणतः हम सोचते हैं कि विक्षेप अलग हों, तो अंतःकरण शुद्ध होगा। कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध हो, तो विक्षेप अलग हो जाते हैं।
यह बात ठीक से न समझी जाए, तो बड़ी भ्रांतियां जन्मों-जन्मों के व्यर्थ के चक्कर में ले जा सकती हैं। ठीक से काज और इफेक्ट, क्या कारण बनता है और क्या परिणाम, इसे समझ लेना ही विज्ञान है। बाहर के जगत में भी, भीतर के जगत में भी। जो कार्य-कारण की व्यवस्था को ठीक से नहीं समझ पाता और कार्यों को कारण समझ लेता है और कारणों को कार्य बना लेता है, वह अपने हाथ से ही, अपने हाथ से ही अपने को गलत करता है। वह अपने हाथ से ही अपने को अनबन करता है।…अंतःकरण शुद्ध हो, तो चित्त के विक्षेप सब खो जाते हैं, विक्षिप्तता खो जाती है। लेकिन चित्त की विक्षिप्तता को कोई खोने में लग जाए, तो अंतःकरण तो शुद्ध होता नहीं, चित्त की विक्षिप्तता और बढ़ जाती है।
जो आदमी अशांत है, अगर वह शांत होने की चेष्टा में और लग जाए, तो अशांति सिर्फ दुगुनी हो जाती है। अशांति तो होती ही है, अब शांत न होने की अशांति भी पीड़ा देती है। लेकिन अंतःकरण कैसे शुद्ध हो जाए? पूछा जा सकता है कि अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा? जब तक विचार आ रहे, विक्षेप आ रहे, विक्षिप्तता आ रही, विकृतियां आ रहीं, तब तक अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा? कृष्ण अंतःकरण शुद्ध होने को पहले रखते हैं, पर वह होगा कैसे?
यहां सांख्य का जो गहरा से गहरा सूत्र है, वह आपको स्मरण दिलाना जरूरी है। सांख्य का गहरा से गहरा सूत्र यह है कि अंतःकरण शुद्ध है ही। कैसे हो जाएगा, यह पूछता ही वह है, जिसे अंतःकरण का पता नहीं है।"—ओशो
यह बात ठीक से न समझी जाए, तो बड़ी भ्रांतियां जन्मों-जन्मों के व्यर्थ के चक्कर में ले जा सकती हैं। ठीक से काज और इफेक्ट, क्या कारण बनता है और क्या परिणाम, इसे समझ लेना ही विज्ञान है। बाहर के जगत में भी, भीतर के जगत में भी। जो कार्य-कारण की व्यवस्था को ठीक से नहीं समझ पाता और कार्यों को कारण समझ लेता है और कारणों को कार्य बना लेता है, वह अपने हाथ से ही, अपने हाथ से ही अपने को गलत करता है। वह अपने हाथ से ही अपने को अनबन करता है।…अंतःकरण शुद्ध हो, तो चित्त के विक्षेप सब खो जाते हैं, विक्षिप्तता खो जाती है। लेकिन चित्त की विक्षिप्तता को कोई खोने में लग जाए, तो अंतःकरण तो शुद्ध होता नहीं, चित्त की विक्षिप्तता और बढ़ जाती है।
जो आदमी अशांत है, अगर वह शांत होने की चेष्टा में और लग जाए, तो अशांति सिर्फ दुगुनी हो जाती है। अशांति तो होती ही है, अब शांत न होने की अशांति भी पीड़ा देती है। लेकिन अंतःकरण कैसे शुद्ध हो जाए? पूछा जा सकता है कि अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा? जब तक विचार आ रहे, विक्षेप आ रहे, विक्षिप्तता आ रही, विकृतियां आ रहीं, तब तक अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा? कृष्ण अंतःकरण शुद्ध होने को पहले रखते हैं, पर वह होगा कैसे?
यहां सांख्य का जो गहरा से गहरा सूत्र है, वह आपको स्मरण दिलाना जरूरी है। सांख्य का गहरा से गहरा सूत्र यह है कि अंतःकरण शुद्ध है ही। कैसे हो जाएगा, यह पूछता ही वह है, जिसे अंतःकरण का पता नहीं है।"—ओशो
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